परिचय
नैमिषारण्य की पावन यात्रा करने का शुभ अवसर हमें पाँच मित्रों के साथ 10 अप्रैल 2025 को प्राप्त हुआ। यह यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं थी, बल्कि आत्मा को स्पर्श करने वाली एक अद्वितीय अनुभूति थी। नैमिषारण्य हिन्दू धर्म का एक प्राचीन तीर्थ स्थल है, जहाँ आस्था, पौराणिकता और प्राकृतिक सौंदर्य एक साथ मिलते हैं। इस ब्लॉग में मैं अपने अनुभव साझा कर रहा हूँ ताकि आप भी इस नैमिषारण्य की पावन यात्रा से प्रेरणा ले सकें और भविष्य में इस दिव्य स्थल के दर्शन का संकल्प कर सकें।
Table of Contents
यात्रा की शुरुआत: लखनऊ से नैमिषारण्य की ओर

हम पाँच मित्र (सभी पति-पत्नी सहित), टेम्पो ट्रैवलर द्वारा लखनऊ से प्रातः 8:30 पर रवाना हुए।लखनऊ से बाहर निकलते ही मौसम ने ऐसा करवट बदला कि अचानक आसमान में बदल छा गए और झमाझम बारिस होने लगी। चारो तरफ अँधेरा ऐसा लग रहा था जैसे शाम को 8:00 बजे हों।
आधे रस्ते तक पहुँचते पहुँचते बारिश बंद हो गई लेकिन मौसम हल्का-सा बादलों से घिरा था, हवा में एक ठंडक और उत्साह थ। यह नैमिषारण्य की पावन यात्रा हम सबके लिए वर्षों से प्रतीक्षित थी। रास्ते में हँसी-मज़ाक, भजन और यात्रा की योजनाएँ बनाते हुए समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।
नैमिषारण्य की पावन यात्रा के प्रमुख तीर्थ स्थल

चक्र तीर्थ नैमिषारण्य का सबसे प्रमुख और पौराणिक स्थल कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि, भगवान विष्णु जी ने ब्रह्माजी को धर्म की रक्षा हेतु एक चक्र दिया था, और जहाँ वह चक्र भूमि में समाया, वही स्थान नैमिषारण्य कहलाया। नैमिषारण्य की पावन यात्रा में चक्र तीर्थ का स्नान अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। हालाँकि वहाँ का पानी साफ़ नहीं था और सीढ़ियाँ काई से भरी हुई थीं, जिससे फिसलन बहुत अधिक थी।
वाराह पुराण के अनुसार इस स्थान पर भगवान ने केवल एक निमिष (क्षण) में ही दानवों का संहार किया गया था, इसलिए इस स्थान का नाम ‘नैमिषारण्य’ पड़ा। वायु, कूर्म और अन्य पुराणों के अनुसार, भगवान के मन से उत्पन्न दिव्य चक्र की नेमि (धुरी) यहीं पर गिरी थी, इसी कारण इस पवित्र स्थान को नैमिषारण्य कहा जाता है।
प्रययुस्तस्य चक्रस्य यत्र नेमिर्व्यशीर्यत।
तद् वनं तेन विख्यातं नैमिषं मुनिपूजितम्॥
नैमिष’ नाम की उत्पत्ति और धार्मिक महत्व
1. ‘नैमिष’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘निमिष’ से मानी जाती है, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार, गौरमुख ऋषि ने केवल एक निमिष (क्षण) में असुरों की विशाल सेना का संहार किया था (कर्निघम, आ.स.रि. भाग 1)।
2. एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार, इस क्षेत्र में ‘निमिष’ नामक फल की अधिकता के कारण इस स्थान का नाम ‘नैमिष’ पड़ा।
3. तीसरे मत के अनुसार, जब असुरों के नाश का समय आया, तब भगवान विष्णु के चक्र की ‘नेमि’ (धुरी) यहीं पर गिरी थी। यही कारण है कि इसे ‘नैमिषारण्य’ कहा गया (मत्स्य पुराण 22/12/14, वायु पुराण 1/15, ब्रह्माण्ड पुराण 1/2/8)।
4. एक अन्य प्रसिद्ध आख्यान के अनुसार, जब असुरों के अत्याचार से पीड़ित देवगण महादेव के नेतृत्व में ब्रह्मा के पास पहुँचे, तो ब्रह्मा जी ने अपना चक्र घुमा कर उसे छोड़ दिया और देवताओं से कहा कि जहाँ यह चक्र गिरे, वहीं जाकर तपस्या करें। वह चक्र नैमिष में गिरा, इसलिए यह स्थान चक्रतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
चक्रतीर्थ का व्यास लगभग 120 फुट है। इसका पवित्र जल नीचे स्थित प्राकृतिक स्रोतों से आता है और ‘गोदावरी नाला’ नामक जलप्रवाह के माध्यम से बाहर की ओर बहता रहता है।
5. चक्रतीर्थ के अतिरिक्त नैमिषारण्य में कई अन्य पावन और दर्शनीय स्थल भी हैं, जैसे – व्यास गद्दी, ललिता देवी मंदिर, भूतनाथ मंदिर, कुशावर्त तीर्थ, ब्रह्मकुंड, जानकीकुंड, हनुमान गढ़ी, गुरुद्वारा और पंचप्रयाग आदि। ये सभी स्थान श्रद्धालुओं और यात्रियों को आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करते हैं।
कहा जाता है कि इस तीर्थ के दर्शन के बिना चारधाम यात्रा अपूर्ण मानी जाती है। source: नैमिषारण्य wikipedia
नैमिषारण्य की पावन यात्रा के प्रमुख तीर्थ स्थल


माँ ललिता देवी मंदिर
यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ माँ सती के हृदय के पतन स्थल के रूप में जाना जाता है। माँ ललिता देवी का मंदिर नैमिषारण्य की आत्मा जैसा है। दर्शन करते समय मन में विशेष शांति और ऊर्जा की अनुभूति होती है। हर नैमिषारण्य की पावन यात्रा में इस मंदिर का दर्शन अनिवार्य समझा जाता है। यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक मुख्य धार्मिक स्थल के रूप में माना जाता है। श्रोत उत्तर प्रदेश पर्यटन निगम।
इस मंदिर की वास्तुकला पारंपरिक शैली में है, जिसमें शिखर और गर्भगृह की बनावट अत्यंत मनोहारी है। श्रद्धालु यहाँ माँ ललिता के दर्शन कर अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। मंदिर परिसर में स्थित पीपल वृक्ष और यज्ञशाला इस स्थल की धार्मिक गरिमा को और भी गहरा बनाते हैं। जब हम मंदिर पहुँचे, वहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ पूजा अर्चना में व्यस्त थी और वातावरण में एक दिव्यता व्याप्त थी। वहाँ बिताया गया हर क्षण हमें माँ की कृपा का अनुभव करवा रहा था।
नैमिषनाथ मंदिर – चतुर्भुज विष्णु का दिव्य धाम

नैमिषारण्य की पावन यात्रा का एक और अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल है नैमिषनाथ भगवान का मंदिर। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, जो यहाँ चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्मा जी द्वारा छोड़ा गया चक्र जहाँ रुका था, उसी स्थान पर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने धर्म की स्थापना हेतु इस क्षेत्र को दिव्यता प्रदान की।
इस मंदिर की विशेषता इसकी प्राचीनता और शांति है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा अष्टधातु की बनी हुई है और उनके चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हैं। मंदिर के चारों ओर तुलसी के पौधे और धार्मिक ग्रंथों की ध्वनि वातावरण को और भी आध्यात्मिक बना देती है।
हमारी यात्रा के दौरान जब हम नैमिषनाथ मंदिर पहुँचे, तो वहाँ की दिव्यता ने हमें मंत्रमुग्ध कर दिया। पूजा के समय घंटियों की ध्वनि, दीपों की रौशनी और भक्तों की आराधना ने इस अनुभव को अविस्मरणीय बना दिया। हर नैमिषारण्य की पावन यात्रा में इस मंदिर का दर्शन एक अनिवार्य कहा जाता है।
व्यास गद्दी – सनातन ज्ञान की जननी भूमि

नैमिषारण्य की पावन यात्रा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक स्थल है व्यास गद्दी, जहाँ महर्षि वेदव्यास ने महाभारत, अठारह पुराणों और वेदांत जैसे अमूल्य ग्रंथों की रचना की थी। यह स्थान केवल एक शिला या गद्दी मात्र नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, ज्ञान और परंपरा का जीवंत स्रोत है।
कहा जाता है कि जब महर्षि वेदव्यास को वेदों और ग्रंथों का ज्ञान लिपिबद्ध करवाना था, तो उन्होंने भगवान गणेश को लेखक बनाया। एक शर्त के साथ – गणेश जी बिना रुके लिखेंगे, और वेदव्यास जी को बिना रुके बोलना होगा। इसी शर्त के तहत, इस व्यास गद्दी पर बैठकर वेदव्यास ने महाभारत की अद्भुत कथा और गूढ़ श्लोकों की रचना की।
इस स्थान की पवित्रता इतनी है कि जैसे ही आप वहाँ पहुँचते हैं, अपने-आप सिर श्रद्धा से झुक जाता है। एक शांत सी ऊर्जा चारों ओर फैली होती है, मानो आज भी महर्षि वेदव्यास किसी ध्यानावस्था में सृजन कर रहे हों। यहाँ पर एक गद्दी स्थापित है जो उनकी साधना का प्रतीक मानी जाती है। श्रद्धालु उस गद्दी की परिक्रमा करते हैं और गहरे भाव से प्रणाम करते हैं।
हमारी नैमिषारण्य की पावन यात्रा में जब हम व्यास गद्दी पहुँचे, तो वहाँ की दिव्यता ने हमें स्तब्ध कर दिया। मन में एक सहज ज्ञान की आस्था और श्रद्धा जागृत हो गई। वहाँ बैठे हुए कई साधक शांति से ध्यानरत थे, जैसे वे वेदव्यास जी के चरणों में बैठे ज्ञान की अनुभूति कर रहे हों।
पुजारियों ने हमें बताया कि यह वही स्थान है जहाँ एक बार 88,000 ऋषि एकत्रित होकर सूत जी से पुराणों की कथा श्रवण कर रहे थे। इस स्थल से ना केवल लेखन का इतिहास जुड़ा है, बल्कि श्रवण और स्मरण की परंपरा भी यहीं से विकसित हुई।
व्यास गद्दी पर एक वट वृक्ष है जो लगभग 5100 वर्ष पुराना माना जाता है। इसी वृक्ष के नीचे महर्षि वेदव्यास जी ने महर्षि जैमिनी ऋषि को वेदों पुराणों का ज्ञान दिया था। इसे अक्षय वट के नाम से भी जाना जाता है।
व्यास गद्दी की यह अनुभूति हमें जीवनभर याद रहने वाली है। नैमिषारण्य की पावन यात्रा को यदि ज्ञान, भक्ति और इतिहास के संगम से परिभाषित किया जाए, तो व्यास गद्दी उसका हृदय है।
हनुमान गढ़ी

ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर में हनुमान जी की विशाल प्रतिमा है। यहाँ से पूरी नैमिषारण्य नगरी दिखाई देती है। नैमिषारण्य की पावन यात्रा के दौरान यह स्थल साहस और भक्ति का प्रतीक बन जाता है।
सूत जी की गद्दी
एक अविस्मरणीय क्षण: त्रिवेदी जी की मुस्कुराती कहानी

दोपहर का लंच, मौसम, बाजार और यात्रा के दौरान के भाव

दधीचि कुंड – एक विरल तीर्थ का स्पर्श

नैमिषारण्य की पावन यात्रा के समापन की ओर बढ़ते हुए, वापसी में हम दधीचि कुंड, मिश्रिख भी पहुँचे। यह स्थान भी सीतापुर जिले में लखनऊ और नैमिषारण्य के रस्ते में आता है. जो महर्षि दधीचि की तपोभूमि और महान त्याग का प्रतीक है। पुराणों के अनुसार, महर्षि दधीचि ने देवराज इंद्र के आग्रह पर अपने प्राण त्याग कर अपनी अस्थियाँ दान दी थीं जिससे वज्र का निर्माण हुआ और दैत्य वृत्रासुर का वध किया गया।
दधीचि कुंड शांत, सरल और अत्यंत श्रद्धामय स्थल है। यहाँ पहुँचकर हमें एक अलग ही शांति का अनुभव हुआ। कुंड के किनारे बैठकर हम सबने कुछ क्षण मौन में ध्यान किया। वहाँ का वातावरण अध्यात्म से ओत-प्रोत था और हमें यह अनुभव हुआ कि नैमिषारण्य की पावन यात्रा तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक महर्षि दधीचि के इस महान स्थल के दर्शन न किए जाएँ।
नैमिषारण्य की पावन यात्रा से मिलने वाली सीख
प्रैक्टिकल यात्रा सुझाव (ट्रैवल टिप्स)
निष्कर्ष: क्यों करें आप भी नैमिषारण्य की पावन यात्रा?
नैमिषारण्य की पावन यात्रा से जुड़े कुछ सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
अक्टूबर से मार्च के बीच का समय नैमिषारण्य की यात्रा के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इस दौरान मौसम सुहाना और यात्रा के अनुकूल रहता है।
• रेल मार्ग से: नैमिषारण्य का निकटतम रेलवे स्टेशन मिश्रिख है, जो प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
• सड़क मार्ग से: लखनऊ से नैमिषारण्य की दूरी लगभग 90 किमी है और आप कार, बस या टैक्सी द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं।
• हवाई मार्ग से: निकटतम एयरपोर्ट लखनऊ (अमौसी) है, वहाँ से सड़क मार्ग से नैमिषारण्य पहुँचा जा सकता है।
जी हाँ, नैमिषारण्य में धर्मशालाएँ, छोटे होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं, जो सरल और किफायती दरों पर ठहरने की सुविधा प्रदान करते हैं।
नैमिषारण्य में निम्नलिखित स्थल अवश्य देखने चाहिए:
• चक्र तीर्थ
• ललिता देवी मंदिर
• नैमिषनाथ मंदिर
• व्यास गद्दी
• हनुमान गढ़ी
• सूत जी की गद्दी
• दधीचि कुंड (मिश्रिख)
जी हाँ, यह एक शांत, आध्यात्मिक और पारिवारिक स्थल है, जो बच्चों और बुजुर्गों दोनों के लिए उपयुक्त है। लेकिन कुछ स्थलों पर सीढ़ियाँ और फिसलन हो सकती है, इसलिए सावधानी बरतना आवश्यक है।
मंदिरों के आसपास प्रसाद की दुकानों और शुद्ध शाकाहारी भोजनालयों की भरमार है। स्थानीय व्यंजन और साधु-संतों द्वारा संचालित भंडारों में स्वादिष्ट व सात्विक भोजन मिलता है।
यदि आप सुबह जल्दी यात्रा शुरू करें तो मुख्य तीर्थस्थलों की यात्रा एक दिन में की जा सकती है। हालाँकि, आध्यात्मिक शांति और सभी स्थलों का संपूर्ण अनुभव लेने के लिए 1-2 दिन का समय उपयुक्त है।